भारत आई मेरी एक विदेशी मित्र ने एक दिन एक मिठाई के बारे में मुझसे पूछा। वह
उसका आकार प्रकार गोल बता रही थी और जानना चाहती थी कि वह कैसे बनाई जाती है।
पहले तो मैं खुद ही नहीं समझ पाया कि आखिर वह किस मिठाई की चर्चा कर रही है वह
पर जब मैंने उससे चित्र बनाकर बताने को कहा तो समझ पाया कि वह जलेबी की बात कर
रही है। उसने बड़े उत्साह से कहा हाँ-हाँ जलेबी।
खैर जलेबी बनाना मुझे तो आता न था पर पत्नी ने जरूर उसे बताने की कोशिश की कि
जलेबी कैसे बनाते हैं। जब वह जलेबी बनाने की विधि उसे बता रही थी तभी मुझे याद
आई लंगड़ साव और उनकी जलेबी की।
लंगड़ साव अब तो रहे नहीं पर उनकी जलेबी का स्वाद आज भी याद है मुझे। कुछ तो
शायद इसलिए कि बचपन में पहली बार अपनी स्मृति में जब जलेबी खाई तो वह लंगड़ साव
की दुकान से आई थी और कुछ इसलिए कि सचमुच लंगड़ साव की दुकान आस पास के मुहल्ले
में बहुत प्रसिद्ध थी। सुबह सवेरे पाँच बजे से ही उनकी दुकान पर जलेबी छननी
शुरू हो जाती और लोगों की भी अपनी बारी आने का इंतजार रहता। आठ नौ बजते न बजते
जलेबियाँ खत्म हो जातीं और भीड़ भी। मैंने लंगड़ साव को कभी जलेबी बनाते नहीं
देखा। बस देखा था उन्हें जलेबी तौलते हुए और पैसे गिनते हुए।
लंगड़ साव का शायद एक पैर थोड़ा छोटा था सो उन्हें लोग लंगड़ साव कहने लगे। साव
साहूकार का तद्भव रूप है तो लंगड़ साव हुए साहूकार।
अब सोचता हूँ कि जलेबी बनाने वाला हलवाई तो कोई और होता था पर जलेबी प्रसिद्ध
थी लंगड़ साव के नाम की। वहाँ पसीने से तरबतर हलवाई भट्टी के सामने बैठ बड़ी
लयात्मकता के साथ गोल गोल जलेबियाँ छानता और फिर उसे शीरे में डुबोता, एक
निश्चित समय के बाद उन्हें बाहर निकालता और गुलाबी, भूरी, पीली सी खरी खरी
जलेबियाँ लोगों को ललचाती जाती। उनकी महक जो नथुनों में घुसी 30-35 साल पहले
वह आज भी आकर्षित करती है। सो लंगड़ साव प्रसिद्ध थे जलेबी के नाम से और जलेबी
प्रसिद्ध थी लंगड़ साव के नाम से, यानि लंगड़ा साहूकार।
शब्द कैसे सच बन जाते हैं यह बात लंगड़ साव के संदर्भ में प्रत्यक्ष दिखाई देती
है। साहूकार वो भी लंगड़ा और केवल तौलने का काम कर रहा है लेकिन जुबान पर नाम
उसी का है। ठीक वैसे ही जैसे ताजमहल का निर्माता है शाहजहाँ पर रचयिता कौन है,
सामान्यतः कोई नहीं जानता। सारा संसार शाहजहाँ को याद करता है जिसका योगदान
उसे बनवाने में तो है, बनाने में नहीं। कलाकार तो बस अपनी कला की बारीकियों
में जीवित रहता है। उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं की बारीकी और मिठास हमें आनंद
तो देती है पर श्रेय किसी दूसरे के खाते में जाता है। वह चाहे शाहजहाँ के
ताजमहल की बात हो चाहे लंगड़ साव की जलेबी की।
अब भी छन छन कर कहीं न कहीं से आती ही रहती है लंगड़ साव की जलेबी जैसी खुशबू।
हो सकता है कि तराजू और कैशबाक्स के सामने कोई दूसरा लंगड़ साव हो पर नाम तो
उसी का होगा। भट्टी के पीछे तपते हलवाई को कौन याद करता है जो पसीने से शीरे
की मिठास जलेबी में भर रहा है। पर याद तो रहती है मिठास और जलेबी का अंतहीन
रूप जो न कहीं से शुरू होता न कहीं खतम ठीक सूरज की गति की तरह अहर्निश,
लगातार, निरंतर। जलेबी को देख देख जो जिज्ञासाएँ जनमती हैं वे भी तो अनंत हैं।
तो भई धन्य है जलेबी और धन्य है जलेबी के आविष्कारक जिन्होंने कैसे तो सोचा
इतनी अद्भुत चीज बनाने को और कैसे बनाई जलेबी।